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मैं हूँ... एक कहानी… जिसमें कोई किरदार नहीं, एक बादल... जिसमें नमी की एक बूँद नहीं, एक समन्दर… जिसमें सब कुछ है, जिसके लिए कुछ नहीं, और ऐसा ही सब कुछ… नाम है "रामकृष्ण"...
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सोमवार, नवंबर 22, 2010
तुम्हें जब धूप का एहसास होगा
मेरी बातों पे तब विश्वास होगा
अभी तो मुस्कुरा लो हादसों पर
मगर कल जब यही इतिहास होगा ?
अहिल्या आज फिर पथरा गयी है
किसी राजा को फिर वनवास होगा
जमेंगे पाँव मजबूती से इक दिन
कोई कब तक हवा का दास होगा ?
इसी उम्मीद पर सब जी रहे हैं
कभी सुख भी हमारे पास होगा
फिजा में उड़ रहे हो आज तो क्या
हवा का जोर बारहमास होगा?
रचनाकार: सर्वत एम जमाल
मंगलवार, अप्रैल 27, 2010
अक्षय की मदद के विषय में पढने के लिए यहाँ जाएँ :

http://mohallalive।com/2010/04/26/plz-help-akshay

http://sanskaardhani.blogspot.com/2010/04/09322011002264.html?
रविवार, अप्रैल 25, 2010
अब तो ऐसा आ गया है जब इंसान ही इंसान की मदद नहीं करता। आज के लोग किसी असहाय की पीड़ा या मजबूरी को खुद के लिए मनोरंजन बना लेते हैं। मैं आपका परिचय कराता हूँ उस "महामानव" से जिसने मानवीय काया न पाकर भी मानवीयता का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत किया है :

बन्दर की मानवीयता

तस्वीर में दो अंधे व्यक्ति हैं इस भीषण गर्मी में प्यास से बेहाल थे। वह अपनी प्यस बुझाने किसी तरह पानी के नल तक तो पहुंच गए लेकिन उनसे नल नहीं खोला गया। तभी वहां एक बंदर आया, उससे इनका कष्ट नही देखा गया और इन अंधे लोगों की मदद करने आगे आया। बंदर ने मानवसेवा का धर्म निभाते हुए नल की टोंटी खोल दी जिससे इन लोगों ने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। आज इंसान, इंसान के काम नही आता जबकि एक जानवर ने मानवसेवा करके मिसाल कायम कर दी।

(यह तस्वीर तमिलनाडु के एक शहर की किसी गली से प्रजावानी/किशोर कुमार बलोर ने अपने कैमरे में क़ैद की थी।)

शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010
"कोई दीवाना कहता है...” से प्रसिद्धि पा चुके कवि डॉ0 कुमार विश्वास अब अगले माह अपने काव्य पाठ से विदेशी धरती को गुंजायमान करेंगे।


कुमार 29 अप्रैल से 30 मई तक यूएसए तथा कनाडा के दौरे पर रहेंगे, जहां वे अपने तय कार्यक्रम के तहत अलग- अलग जगहों पर काव्य पाठ करेंगे। कार्यक्रम के अनुसार न्यू जर्सी में आयोजित हिन्दी महोत्सव में एक व दो मई, बुफ़ैलो में सात मई, कनाडा [ मोन्ट्रियल व टोरंटो] में 8-9 मई, वाशिंगटन डीसी में 15 मई, अटलांटा में 16 मई, सेन फ्रांसिस्को में 22 मई, लॉस एंजिलिस में 23 मई और कनैक्टिकट में 29 मई को विदेशी श्रोता कुमार के काव्य पाठ का भरपूर लुत्फ उठाएंगे।


श्रोत : वेबदुनिया

शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

डॉ. क्रिश्चियन फ्राइडरिक सैमुअल हैनीमेन (जन्म 1755-मृत्यु 1843 ईस्वी) होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता थे।डॉ. हैनीमेन यूरोप के देश जर्मनी के निवासी थे। इनके पिता एक पोर्सिलीन पेन्टर थे और आपने अपना बचपन अभावों और बहुत गरीबी में बिताया था।

एमडी डिग्री प्राप्त एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान के ज्ञाता थे। डॉ. हैनिमैन, एलोपैथी के चिकित्सक होने के साथ-साथ कई यूरोपियन भाषाओं के ज्ञाता थे। वे केमिस्ट्री और रसायन विज्ञान के निष्णात थे। जीवकोपार्जन के लिये चिकित्सा और रसायन विज्ञान का कार्य करने के साथ-साथ वे अंग्रेजी भाषा के ग्रंथों का अनुवाद जर्मन और अन्य भाषाओं में करते थे। एक बार जब अंगरेज डाक्टर कलेन की लिखी कलेन्स मेटेरिया मेडिका में वर्णित कुनैन नाम की जड़ी के बारे मे अंगरेजी भाषा का अनुवाद जर्मन भाषा में कर रहे थे तब डॉ। हैनीमेन का ध्यान डॉ. कलेन के उस वर्णन की ओर गया, जहां कुनैन के बारे में कहा गया कि यद्यपि कुनैन मलेरिया रोग को आरोग्य करती है, लेकिन यह स्वस्थ शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा करती है।कलेन की कही गयी यह बात डॉ. हैनीमेन के दिमाग में बैठ गयी। उन्होंने तर्कपूर्वक विचार करके क्विनाइन जड़ी की थोड़ी-थोड़ी मात्रा रोज खानी शुरू कर दी। लगभग दो हफ्ते बाद इनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये।


जड़ी खाना बन्द कर देने के बाद मलेरिया रोग अपने आप आरोग्य हो गया। इस प्रयोग को डॉ। हैनीमेन ने कई बार दोहराया और हर बार उनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये। क्विनीन जड़ी के इस प्रकार से किये गये प्रयोग का जिक्र डॉ हैनीमेन ने अपने एक चिकित्सक मित्र से की। इस मित्र चिकित्सक ने भी डॉ. हैनीमेन के बताये अनुसार जड़ी का सेवन किया और उसे भी मलेरिया बुखार जैसे लक्षण पैदा हो गये। कुछ समय बाद उन्होंने शरीर और मन में औषधियों द्वारा उत्पन्न किये गये लक्षणों, अनुभवों और प्रभावों को लिपिबद्ध करना शुरू किया।


हैनीमेन की अति सूक्ष्म दृष्टि और ज्ञानेन्द्रियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि और अधिक औषधियों को इसी तरह परीक्षण करके परखा जाये। इस प्रकार से किये गये परीक्षणों और अपने अनुभवों को डॉ। हैनीमेन ने तत्कालीन मेडिकल पत्रिकाओं में मेडिसिन ऑफ एक्सपीरियन्सेस शीर्षक से लेख लिखकर प्रकाशित कराया। इसे होम्योपैथी के अवतरण का प्रारम्भिक स्वरूप कहा जा सकता है।

बुधवार, अप्रैल 07, 2010
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की "गीतांजलि" से...


मूल कृति (बांग्ला) :

আমার এ গান ছেড়েছে তার সকল অলংকার,
তোমার কাছে রাখে নি আর সাজের অহংকার।
অলংকার যে মাঝে পড়ে মিলনেতে আড়াল করে,
তোমার কথা ঢাকে যে তার মুখর ঝংকার।
তোমার কাছে খাটে না মোর কবির গর্ব করা,
মহাকবি তোমার পায়ে দিতে যে চাই ধরা।
জীবন লয়ে যতন করি যদি সরল বাঁশি গড়ি,
আপন সুরে দিবে ভরি সকল ছিদ্র তার।



हिंदी अनुवाद :

आमार ए गान छेड़ेछे तार शॉकोल ऑलोंकार
तोमार कछे रखे नि आर शाजेर ऑहोंकार
ऑलोंकार जे माझे पॉड़े मिलॉनेते अड़ाल कॉरे,
तोमार कॉथा ढाके जे तार मुखॉरो झॉंकार ।
तोमार काछे खाटे ना मोर कोबिर गॉर्बो कॉरा,
मॉहाकोबि, तोमार पाये दिते जे चाइ धॉरा ।
जीबोन लोये जॉतोन कोरि जोदि शॉरोल बाँशि गॉड़ि,
आपोन शुरे दिबे भोरि सॉकोल छिद्रो तार ।



साभार : विकिपीडिया
शनिवार, अप्रैल 03, 2010


मेरे बच्चे ही मेरी पूँजी हैं!



जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला!



एक माँ के लिए इनसे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता!



स्कूल! इन्हें नहीं पता!



आ तुझे अच्छे से सजा दूं!



फूलों का तारों का सबका कहना है!




इन तस्वीरों को गौर से देखी और ज़रा सोचिए कि ये आपसे कह रहे हैं? अगर आप नहीं भी सोच पा रहे हैं तो कोई बात नहीं, ये तस्वीरें खुद ही अपनी कहानी बता देंगी...
सभी चित्र साभार : गूगल










गुरुवार, अप्रैल 01, 2010
भारत समेत कई देशों में गुरुवार से नया वित्त वर्ष शुरू हो गया जिसकी परंपरा लगभग 400 वर्ष पुरानी है। इस परम्परा की शुरुआत भारत से गहरी जुड़ी है। वर्ष 1582 से पहले भारत के विभिन्ना हिस्सों में नवचंद्र वर्ष, वैशाखी, तमिल नव वर्ष, मलयालयम विशू दिवस और बांग्ला नव वर्ष एक अप्रैल को ही पड़ता था।देश में इस दिन को 'फसल दिवस के रूप में भी मनाया जाता था। इसी दिन वित्तीय कार्यकलाप शुरू करने को भी शुभ माना जाता था।

भारत तब दुनिया का प्रमुख केंद्र था और वैश्विक व्यापार में उसका हिस्सा 23 फीसदी था। इंग्लैंड ने भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1600 में की। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब केरल, तमिलनाडु और बंगाल में देखा कि भारतीय एक अप्रैल को नववर्ष मनाते हैं तो उसने वाणिज्यिक गतिविधियां शुरू करने के लिए इसे नव वर्ष के रूप में अपना लिया।


इससे पूर्व मुगल बादशाह अकबर ने वैशाखी दिवस को फसली वर्ष के रूप में मान्यता दी और वित्त वर्ष की शुरुआत इसी दिन से करना शुरू किया।

नहीं लिया इस्लामी कैलेंडर का सहारा
उनहोंने इस्लामी कैलेंडर का इस्तेमाल नहीं किया जिसमें 354 दिन होते हैं जो चंद्र वर्ष से ग्यारह दिन कम होते हैं। फसल उत्सव बाद में एक अप्रैल से 14 अप्रैल हो गया जिसकी वजह ग्रेगोरियन कैलेंडर में किया गया परिवर्तन था।


श्रोत : नईदुनिया दैनिक
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